Saturday, October 10, 2009

Gazal...

वोह एक बार लौट के आते, तो बात कुछ और होती
मुझको सिने से लगाते, तो बात कुछ और होती .....



जाम कई पीता गया उल्फत-ऐ-गम में
थोड़ी निगाहों से पिलाते, तो बात कुछ और होती ....



कितना बेचैन था में दीदार-ऐ-यार करने को
नकाब वोह रुख से उठाते, तो बार कुछ और होती ....



ख्वाबो में आकर तड़पाते थे अक्सर
कभी सामने भी आते, तो बात कुछ और होती.....



अपनी चाहत को आँखों से बयान कर देता गर
एक बार नजरे जो मिलाते, तो बात कुछ और होती....



मेरी धड़कन में बस वोही बसा करते थे
साँसों में भी समाते, तो बात कुछ और होती....



अब तलक फिरता रहा में बनके परछाई उनकी
हमसफ़र मुझको बनाते, तो बात कुछ और होती ....



न जाने क्यूं अधूरी सी है मेरी हर एक “ग़ज़ल”?
उनके येहेसास उभर आते, तो बात कुछ और होती .......

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